वैदिक मनोविज्ञान

वैदिक मनोविज्ञान
आज मनोविज्ञान पृष्ठ मेरे प्रथम गुरु माता-पिता,गुरु तथा राज गुरु को प्रणाम, के साथ समर्पण

वैदिक मनोविज्ञान ब्रम्ह विज्ञान से शुरू होता हैं गुरु से की आप को गुरु की प्राप्ति कैसे हुई और किस किस्म के आप के गुरु हैं , आधुनिक मनोविज्ञान ने समानता के साथ भिन्नता भी हैं ,गुरु कैसा हो इस की परख भी होनी आवश्यक होता हैं, भगवान राम चन्द्र के भी गुरु थे फिर भी उन का सवाल आज भी पूछा जा सकता हैं की गुरु कैसे हो ?
1. गुरु के पास चित की एकाग्रता होती हो, बैचेनी नही आती हो, उदासी, निराश के भाव नही आना चाहिए ,
2. गुरु जी ज़ुबान पर संतुलन हो नियंत्रण हो अपनी बात पर अधिकार हो और आप के बंधन को खोल दे  ,
3. गुरु को काम क्रोध मद,लोभ की सीमा रेखा हो और मर्यादा को नही लगता हो ,
4. स्वंय गुरु की खोज करने की बजाय भगवान से प्रार्थना से आप को गुरु प्राप्त हो जिस के पीछे मूल कारण की आप को अहंकार की सीमा में बांध जाओ, गुरु को बदला नही जाता परन्तु अपवाद उन का विस्तार किया जा सकता जैसे भगवान दत्तात्रेय जी के 24 गुरु थे. गुरु बताते शीर-नीर में क्या फर्क हैं, सोना-पीतल दोनों पिली धातु है फिर भी उस में भेद हैं, साप-रस्सी दोनों रात्रि के समान दीखते परन्तु उस में भी भेद और ये भेद जब बन जाते तो मन भटकाव में आ जाता, इस प्रकार इस शरीर रूपी क्षेत्र में पृथ्वी के समान बहुत सारे बीज दबे रहते और कभी कभी बे वक्त मौसम की तरह प्रतिकूल अवस्था में अनुकूल प्रभाव पैदा हो जाता और विक़ार पैदा कर जाता हैं, तब गुरु की जरूरत पडती हैं .
समय बड़ा होता है, परन्तु ज्ञात हो भी अज्ञात हो जिस का आज कारण मैं के अस्तित्वहीन का आचार सहिता में चेतन अवस्था की परा काष्ठ्ता हीनता जो शून्यकाल के प्रवेश कर जाती है जिस से गलतीयों को स्थान परिवर्तन में स्वीकार्य होती है, वहा वर्तमान दीखता है .
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सद्गुरु बिरला ही कोई,  साधू-संत अनेक ,
सर्प करोड़ो भूमि पर, मणि युक्त कोई एक. 

मनोविज्ञान = मन का विज्ञान, मन, दिल, आत्मा में रहे विचारों की ग्राहकता की महकता को जाना जाता।जिसको कुव्यवस्थित से सुव्यवस्थित करना , सिखा हुआ वो आचरण, उस में जो कमी या त्रुटी के कारण से मनोदैहिक समस्याओं का समाधान करना जैसे बीमारी होती राई भर और रोगी उसको बताता पर्वत के समान ,भ्रम-विभ्रम और कल्पिक भटकाव में वैकल्पिक नैदानिक चिकित्सा से उपचार किया जाता है.
मानव चेतना
मानव का मनोविज्ञान = चेतना का ज्ञान प्राय साधारण मनुष्य, जानवर पशु, पक्षी, किट, पतंगे, जलचर ,थलचर तथा नभचर प्राणियों में पाया जाता, चेतन अवस्थाओं का ज्ञान जो  करीब-करीब सभी प्राणियों में समान रूप से पाया जाता वह खाने-पिने, सोने, रक्षा करने तथा मैथुन करने का समान्तर ज्ञान होता हैं.
 मानव चेतना =  इन सब में सर्वश्रेष्ठ होती .
चेतना की प्रकृति = आठ प्रकार की विभाजित होती, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि, और अहंकार.
चेतना में = चेतना में उत्पति, स्थिति, ध्वंस, निग्रह, एवं अनु ग्रह ये पांच कार्य सदा होते है.
चेतना का ज्ञान = अज्ञान के कारण ज्ञान ढका रहता हैं.
अज्ञान से क्लेश = अज्ञान से पांच प्रकार का क्लेश होता हैं. 1 अज्ञान 2 अस्मिता 3 राग 4 द्वेष और 5 अभिनिवेश, ये पांच प्रकार के क्लेश. इस लौकिक संसार में प्राणीमात्र के परेशानी के कारण होते हैं. जो चित में स्थिर बने हुए होते हैं. उसी के कारण वो संस्कार में बन जाते हैं. जो समाज, जाती, आयु, भोग, और कर्म फल आदि इस प्रकार के सभी क्लेशो के कारण होते हैं. महान दुःख इन क्लेश के कारण बने रहते हैं. ये क्लेश अन्य अपर नामों में भी पहचाने जाते हैं. झूटा ज्ञान [ मिथ्या ज्ञान ] भ्रम ज्ञान.  
अज्ञान 
अज्ञान ही इन चार क्लेशों का मूल कारण होता हैं [ राग, द्वेष, अस्मिता, और अभिनिवेश ] अस्मिता से चार अवस्था उत्पन्न होती हैं. प्रसुप्त, तनु, विच्छिन और उदार ये चारों अवस्था अज्ञान ही हैं.
1. प्रसुप्त - इस प्रकार का क्लेश चित में स्थिर रहकर भी अपना कार्य सम्पादित नही कर पता. जैसे मनुष्य की बाल्यकाल में विषय भोगों की वासनाएँ बीज रूप में होते हुए भी दबी रहती हैं. तथा जब बाल अवस्था से युवावस्था होते ही सभी वासना सक्रिय हो जाती वैसे ही प्रलय काल में एवं सुषुप्ति की अवस्था में अस्मिता आदि चारों क्लेशो की प्रसुप्तावस्था बनी रहती हैं. 
2. तनु - उन क्लेशों को कर्म योग की शक्ति से रहित कर दिया जाता, परन्तु उनकी वासनाएँ बीज के समान रूप में चित्त में निरंतर विधमान रहती हैं.इस समय मनुष्य कर्म नही करके शांत रहते [ इस प्रकार के क्लेशो को दूर करने के लिए ध्यान, धारणा, ममता, का परित्याग और वास्तविकता का ज्ञान से दूर किया जा सकता हैं.] 
3. विच्छिन्न - अस्मिता में से किसी क्लेश के शक्ति मान या उदार होने से एक क्लेश दूसरे क्लेश को दबा जाता हैं. 
4. उदार - उदार अवस्था में क्लेश सभी सहयोगी विषय भोग को प्राप्त करके अपना कार्य को क्रमबद्ध करता हैं. [ अविध्या का अपना कोई अवस्था भेद नही होता हैं.]  
आप की प्रकृति 
मानव और तत्व की प्रकृति तीन प्रकार की होती हैं, 
1.  सतोगुणी = प्रकाशक और हल्का माना गया हैं, हल्कापन, प्रीति, तितिक्षा, संतोष, प्रकाश के साथ उदय होते हैं.  
2. रजोगुण = उत्तेजक और चल माना गया हैं, सुख-दुःख, चंचलता, उत्तेजना के साथ उदय होता हैं   
3. तमोगुण = भारी और रोकने वाला माना गया है. मोह, आलस, निंद्रा, भारीपन के साथ उदय होते हैं .  
1. सत्व या सतोगुण धारक या प्रकृति का मानव के गुण हल्का और प्रकाशक होता हैं, इस लिए सतोगुणी पदार्थ हो या इन्सान सभी प्रकाशक होते हैं. आग इसलिए उपर जला करती क्योंकि वो हलकी होती है. सतोगुणी तत्व की प्रधानता होने से अग्नि में प्रकाश होता हैं. इसी प्रकार इंद्रिय और मन प्रकाशशील होते हैं. सतोगुण और तमो गुण स्वयं अक्रिय हैं. इसलिए ये अपना कार्य करने में ये असमर्थ हैं. रजस [ राजस , रजोगुण ] क्रियाशील होने से उन दोनों गुणों को उत्तेजना देता हैं और अपने कार्य [ काम ] में प्रवृत करता हैं. जब मानव शरीर में रजोगुण अधिक होने से उत्तेजना और चंचलता बढ़ा जाती हैं. और रजोगुण चंचल स्वभाव होने से हलके सतोगुण को प्रवृत करता हैं. परन्तु जब तमोगुण भारी होने से रजोगुण को रोकता हैं. जब शरीर तमोगुण प्रधान होता हैं तो शरीर भारी, और काम [ कार्य ] में प्रवृत नही होता हैं.  

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