इस भौतिक-जीवन में मानव के आत्मा मे कर्म बंधन की परते होती है . इन कर्म बंधन के कारण विकास में बाधा आती है , जिससे चेतना शून्य यानि धूमल हो जाती है। यह आवरण काम ही है, जो विभिन्न रूपों में होती है . अग्नि में धुआँ , दर्पण पर धूल ,और भ्रूण पर गर्भाशय . कहने का मतलब कही धुआँ है तो अग्नि का होना अवश्य होता है, अर्थात मन में काम के विचार है, तो क्रोध पीछे अवश्य होगा .मन रूपी दर्पण पर धूल अवश्य आती है जिस को उदाहरण की पशु-पक्षिओ के समान वाली बुद्धि हो जाती है ,इस लिए प्रेरणा से पशुत्त्व दूर किया जाता है . गर्भाशय का आवरण में भ्रूण का मतलब उन वृक्षों से तुलना की जाती है जिस में जीव तो होता परन्तु चलने-फिरना में स्वतंत्र नही होते है।मन में विचार के अवरोध को धुएँ की भाती को ठीक से नियंत्रण किया जाए तो मन की अग्नि प्रज्वलित हो सकती है ...
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बुधवार, 26 दिसंबर 2012
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